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संविधान संशोधन | Amendment Of Constitution In Hindi

संविधान संशोधन किसी देश का संविधान यह लिखित दस्तावेज होता है, जिसके आधार पर उस देश की शासन व्यवस्था का क्रियान्वयन होता है। संविधान कर प्रासंगिकता बनाए रखने के लिए यह आवश्यक है कि परिस्थितियों के अनुसार उसमें परिवर्तन किए जाएँ। भारतीय संविधान में भी संशोधन प्रक्रिया के प्रावधान को अपनाकर उसे गतिशीलता प्रदान की गई है।

संशोधन का अर्थ

संविधान की प्रासंगिकता को बनाए रखने के लिए समय के अनुसार उसमें संशोधन आवश्यक है। भारतीय संविधान में संशोधन (Amendment) की प्रक्रिया न तो अमेरिका की भाँति कठोर है और न ही ब्रिटेन की भाँति लचीली है। वस्तुत: हमारी संविधान संशोधन की प्रक्रिया में कठोरता व लचीलेपन का समन्वय है। संविधान के भागxx के अनुच्छेद 368 में संसद को संविधान एवं इसकी व्यवस्था में संशोधन की शक्ति प्रदान की गई है। यह उल्लिखित है कि संसद अपनी संविधायी शक्ति का प्रयोग करते हुए इस संविधान के किसी उपबन्ध का परिवर्द्धन, परिवर्तन या निरसन के रूप में संशोधन कर सकती है। केशवानन्द भारती वाद (1973) में सुप्रीम कोर्ट ने अभिनिर्धारित किया था कि संसद संविधान में संशोधन कर मूल ढाँचे में परिवर्तन नहीं कर सकती है।

संविधान संशोधन की प्रक्रिया

अनुच्छेद 368 में संशोधन की प्रक्रिया का निम्नलिखित तरीकों से उल्लेख किया गया है

  • संविधान के संशोधन का आरम्भ संसद के किसी भी सदन में विधेयक प्रस्तुत (Introduced) करके ही किया जा सकता है।
  • विधेयक को किसी मन्त्री अथवा गैर-सरकारी सदस्य द्वारा पेश किया जा सकता है और इसके लिए राष्ट्रपति की पूर्व स्वीकृति आवश्यक नहीं है।
  • विधेयक को दोनों सदनों में सदन की कुल सदस्य संख्या के बहुमत तथा उपस्थित एवं मतदान करने वाले सदस्यों के 2/3 बहुमत द्वारा पारित कराना आवश्यक है।
  • प्रत्येक सदन में विधेयक को अलग-अलग पारित कराना अनिवार्य है (असहमति होने पर संयुक्त बैठक (Joint Sitting) का प्रावधान नहीं)।
  • यदि विधेयक संविधान की संघीय व्यवस्था के संशोधन के मुद्दे पर हो, तो इसे आधे राज्यों के विधानमण्डलों से भी सामान्य बहुमत से पारित होना आवश्यक है।
  • संसद के दोनों सदनों से पास होने एवं राज्य विधानमण्डलों की अनुमति के बाद जहाँ आवश्यक हो, फिर राष्ट्रपति के पास अनुमति के लिए भेजा जाता है।
  • राष्ट्रपति विधेयक पर अनुमति देने के लिए बाध्य होता है, वह न तो विधेयक को अपने पास रख सकता है न ही संसद के पास पुनर्विचार के लिए भेज सकता है।
  • राष्ट्रपति की अनुमति के बाद विधेयक एक संविधान संशोधन अधिनियम (Act) बन जाता है और संविधान में अधिनियम की तरह इसका समावेश कर दिया जाता है।

संसद के साधारण बहमत द्वारा संशोधन

संसद के दोनों सदनों द्वारा साधारण बहुमत (Simple Majority) से संविधान के अनेक उपबन्ध संशोधित किए जा सकते हैं। ये व्यवस्थाएँ अनुच्छेद 36 की सीमा से बाहर हैं, जोकि निम्नलिखित है

  • अनुच्छेद 2, 3 में जिनमें नए राज्यों को सम्मिलित करने, राज्यों के नाम, सीमा व क्षेत्र में परिवर्तन, नए राज्य का निर्माण करने की शक्ति संसद को दी गई है।
  • अनुच्छेद 73(2) जो संसद की किसी अन्य व्यवस्था के होने तक राज्य में कुछ सुनिश्चित
    शक्तियाँ निहित करता है।
  • अनुच्छेद 100(3) जिसमें संसद की नई व्यवस्था के होने तक संसदीय गणपूर्ति (Quorum) का प्रावधान है।
  • अनुच्छेद 75, 97, 125, 148, 165 (5) तथा 221(1) जो द्वितीय अनुसूची में परिवर्तन की अनुमति देते हैं।
  • अनुच्छेद 105(3) संसद द्वारा परिभाषित किए जाने पर संसदीय विशेषाधिकारों की व्यवस्था करता है।
  • अनुच्छेद 106 जो संसद द्वारा परिभाषित किए जाने पर संसद सदस्यों के वेतन एवं भत्तों की व्यवस्था करता है।
  • अनुच्छेद 118(2) संसदीय प्रक्रिया सम्बन्धी विधि का निर्माण करना।
  • अनुच्छेद 120(3) संसदीय भाषा के बारे में उपबन्ध करना।
  • अनुच्छेद 124(1) सर्वोच्च न्यायालय में न्यायाधीशों की संख्या में परिवर्तन।
  • पाँचवीं व छठी अनुसूची में परिवर्तन।
  • अनुच्छेद 169 के तहत विधानपरिषद्स माप्ति के लिए।
  • निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्निर्धारण।
  • नागरिकता की प्राप्ति एवं समाप्ति।
  • उच्चतम न्यायालय के न्यायक्षेत्र को अधिक महत्त्व प्रदान करना।
  • केन्द्रशासित प्रदेश।

संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन

संविधान के अधिकतर उपबन्धों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत (Special Majority) द्वारा किया जाता है अर्थात् प्रत्येक सदन के कुल सदस्यों का बहुमत तथा प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान करने वाले सदस्यों का 2/3 बहुमत। विशेष बहुमत की आवश्यकता विधेयक के तीसरे पठन-चरण पर केवल मतदान के लिए आवश्यक होती है।

संसद के विशेष बहुमत द्वारा संशोधन

संविधान के अधिकतर उपबन्धों का संशोधन संसद के विशेष बहुमत (Special Majority) द्वारा किया जाता है अर्थात् प्रत्येक सदन के कल सदस्यों का बहुमत तथा प्रत्येक सदन के उपस्थित और मतदान की वाले सदस्यों का 2/3 बहुमत। विशेष बहुमत की आवश्यकता विधेयक के तीसरे पठन-चरण पर केवल मतदान के लिए आवश्यक होती है। इस तरह से संशोधन व्यवस्था में शामिल हैं

  • मूल अधिकार
  • राज्य के नीति-निदेशक तत्त्व
  • वे सभी उपबन्ध, जो प्रथम एवं तृतीय श्रेणियों से सम्बद्ध नहीं हैं।

संसद के विशेष बहुमत एवं राज्यों की स्वीकृति द्वारा संशोधन

संसद के विशेष बहुमत द्वारा नीति के संघीय ढाँचे से सम्बन्धित संविधान के उपबन्धों को संशोधित किया जा सकता है और इसके लिए यह भी आवश्यक है कि कम-से-कम आधे से अधिक राज्य विधानमण्डलों में साधारण बहुमत के माध्यम से उनको अनुमति मिली हो। विधेयक को स्वीकृति देने के लिए राज्यों के लिए कोई समय सीमा निर्धारित नहीं है।

निम्नलिखित उपबन्धों को इसके अन्तर्गत संशोधित किया जा सकता है

  • अनुच्छेद 54 राष्ट्रपति का निर्वाचन मण्डल
  • अनुच्छेद 55 राष्ट्रपति की निर्वाचन प्रणाली
  • अनुच्छेद 73 संघ की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
  • अनुच्छेद 162 राज्य की कार्यपालिका शक्ति का विस्तार
  • अनुच्छेद 241 संघ राज्यक्षेत्रों के लिए
  • भाग V का अध्याय 4 संघ की न्यायपालिका
  • भाग VI का अध्याय 5 राज्यों के उच्च न्यायालय
  • भाग XI के अध्याय 1_संघ राज्य के विधायी सम्बन्ध
  • संसद में राज्यों का प्रतिनिधित्व
  • सातवीं अनुसूची
  • स्वयं अनुच्छेद 368

महत्वपूर्ण संविधान संशोधन

संविधान संशोधनप्रावधान
 प्रथम संविधान संशोधन अधिनियम, (1951)मौलिक अधिकारों में समानता, स्वतन्त्रता तथा सम्पत्ति के अधिकार को सीमित किया गया।
द्वितीय संविधान संशोधन अधिनियम, (1952) संसद में राज्यों के प्रतिनिधत्व को निर्धारित किया गया।
7वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1956)राज्यों का पुनर्गठन-14 राज्य तथा 6 केन्द्रशासित प्रदेश, लोकसभा एवं राज्यसभा में सीटों का पुनर्वितरण, संघ राज्यक्षेत्र का प्रावधान
10वां संविधान सेशोधन अधिनियम, (1961)दादरा एवं नगर हवेली को भारत का अंग बनाया गया।
 12वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1962)गोवा, दमन एवं दीव को भारत का अंग बनाया गया।
 13वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1962)नागालैण्ड को भारत का नया राज्य घोषित किया गया (कुछ विशेष उपबन्धों के साथ)
14वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1962)पुदुचेरी को भारत का अंग बनाया गया।
26वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1971)राजाओं के प्रिवीपर्स तथा विशेषाधिकार को समाप्त किया गया।
31वां संविधान संशोधन अधिनियम, (1973)लोकसभा की सदस्य संख्या 525 से बढ़ाकर 545 कर दी गई।
36वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1975)सिक्किम को पूर्ण राज्य का दर्जा दिया गया और उसे संविधान की प्रथम अनुसूची में शामिल किया गया।
39वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1975)राष्ट्रपति, उपराष्ट्रपति, लोकसभा अध्यक्ष और प्रधानमन्त्री के निर्वाचन को चुनौती नहीं दी जा सकती।
 42वाँ संविधान (1976) इसे लघु संविधान भी कहते हैं।(कुल 55 अनुच्छेदों में संशोधन किया गया था।)
  • प्रस्तावना में ‘सम्पूर्ण प्रभुत्वसम्पन्न, लोकतन्त्रात्मक गणराज्य’ के साथ पन्थनिरपेक्ष, समाजवादी तथा राष्ट्र की एकता के साथ अखण्डता गद जोड़ा गया।
  • राज्य के नीति-निदेशक तत्त्वों का विस्तार किया गया, साथ ही इसमें मौलिक अधिकारों पर नीति-निदेशक तत्त्वों की प्राथमिकता स्थापित की गई
  • संविधान संशोधनों को न्यायालय में चुनौती नहीं दी जा सकती।
  • मौलिक कर्तव्यों का समावेश किया गया।
  • राष्ट्रपति मन्त्रिमण्डल की सलाह मानने के लिए बाध्य है।
  • आपातकालीन स्थिति में राष्ट्रपति देश के साथ-साथ देश के किसी एक भाग में भी अनुच्छेद 352 के तहत आपात की घोषणा कर सकेगा।
  • राज्यों में आपातकालीन घोषणा 6 माह से 1 वर्ष की गई।
  • समवर्ती सूची में जोड़े गए-वन, वन्य प्राणी की सुरक्षा, न्यायिक प्रशासन, शिक्षा, नाप तथा तौल।
44वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1978)
  • सम्पत्ति के मौलिक अधिकार को हटाकर उसे विधिक अधिकार बना दिया गया। (अनुच्छेद 300A में शामिल किया गया)
  • राष्ट्रपति को मंत्रिमण्डल को सलाह की पुनर्विचार के लिए एक बार लोटाने के बाद दोबारा उसे मानना बाध्यकारी किया गया।
  • राष्ट्रीय आपात के संदर्भ में ‘आंतरिक अशांति’ शब्द के स्थान पर ‘सशस्त्र विद्रोह’ शब्द रखा गया।
  • अनुच्छेद 20 और 21 द्वारा प्रदत्त मौलिक अधिकारों को राष्ट्रीय आपातकाल में निलंबित नहीं किया जा सकता।
  • जीवन एवं व्यक्तिगत स्वतन्त्रता तथा प्रेस की स्वतन्त्रता को सुनिश्चित किया गया।
  • ‘सशस्त्र विद्रोह’ की स्थिति में आपात घोषणा मन्त्रिमण्डल की लिखित सलाह पर की जाएगी।
45वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1980)  अनुसूचित जाति/जनजाति एवं एंग्लो-इण्डियन समुदाय के लिए व्यवस्थापिकाओं में सीटों का आरक्षण 10 वर्ष के लिए बढ़ा दिया गया।
52वाँ संशोधन अधिनियम , (1985) (इसे दल-बदल विरोधी विधि के रूप में जाना जाता है)दल-बदल पर रोक लगाई गई तथा इस संबंध में संविधान में दसवीं अनुसूची बनाई गई।
53वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1986) मिजोरम को भारत संघ के 23वें राज्य का दर्जा दिया गया।
 55वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1986)अरुणाचल प्रदेश को भारत संघ के 24वें राज्य का दर्जा दिया गया।
  56वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1987)गोवा को भारत संघ के 25वें राज्य का दर्जा दिया गया।
 58वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1987)भारतीय संविधान का हिन्दी में प्राधिकृत पाठ का प्रावधान किया गया।
  61वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1989)लोकसभा तथा विधानसभा चुनावों में मतदाताओं की आयु 21 वर्ष से घटाकर 18 वर्ष की गई है।
65वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1990)अनुसूचित जाति और जनजाति के राष्ट्रीय आयोग में विशेष अधिकारी के स्थान पर बहुसदस्यीय व्यवस्था का उपबंध
 69वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1991)केन्द्रशासित प्रदेश दिल्ली का नाम राष्ट्रीय राजधानी क्षेत्र किया गया। दिल्ली में 70 सदस्यों वाली विधानसभा बनाई गई।
  70वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1992) दिल्ली विधानसभा तथा पाण्डिचेरी (पुदुचेरी) विधानसभा को राष्ट्रपति के निर्वाचन में भाग लेने का अधिकार प्रदान किया गया।
71वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1992)कोंकणी, मणिपुरी और नेपाली भाषा को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।
 73वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1992)पंचायती राज को संवैधानिक दर्जा दिया गया, संविधान में ग्यारहवीं सूची जोड़ी गई।
  74वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (1992)नगरपालिका व्यवस्था को संवैधानिक दर्जा दिया गया, संविधान में बारहवीं सूची जोड़ी गई।
  84वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2001)1991 की जनगणना के आधार पर राज्यों में लोकसभा एवं विधानसभा सीटों की संख्या में परिवर्तन किए बगैर निर्वाचन क्षेत्रों का पुनर्गठन।
85वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2002) सरकारी सेवाओं में अनुसूचित जाति/जनजाति के उम्मीदवारों के लिए पदोन्नति में आरक्षण की व्यवस्था।
86वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2002)संविधान में अनुच्छेद 21(A), 45 तथा 51(A) को जोड़ा गया। राज्य द्वारा 6 से 14 वर्ष तक के सभी बच्चों को निःशुल्क तथा अनिवार्य शिक्षा का प्रावधान किया गया।
87वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)परिसीमन में जनसंख्या का आधार की जनगणना के स्थान पर 2001 कर दिया गया।
88वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)सेवाओं पर कर का प्रावधान किया गया।
 89वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)राष्ट्रीय अनुसूचित जाति एवं जनजाति आयोग का दो भागों राष्ट्रीय अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 338) तथा अनुसूचित जाति आयोग (अनुच्छेद 338 क) में विभाजन
91वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)मन्त्रिपरिषद् का आकार निश्चित किया गया। केन्द्र व राज्य दोनों में प्रधानमन्त्री व मुख्यमन्त्री समेत 15% परन्तु छोटे राज्यों में मुख्यमन्त्री समेत न्यूनतम 12 मन्त्री होने चाहिए।
92वौँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)‘डोगरी’, ‘मैथिली’, ‘बोडो और ‘सन्थाली’ भाषाओं को आठवीं अनुसूची में शामिल किया गया।
93वौँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2003)निजी एवं बिना सरकारी अनुदान प्राप्त शिक्षण संस्थाओं में प्रवेश पर सामाजिक एवं शैक्षणिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए 27% आरक्षण)
94वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2006)अनुसूचित जनजातियों के कल्याण के लिए एक मन्त्री का प्रावधान, मध्य प्रदेश एवं ओडिशा के साथ-साथ छत्तीसगढ़ एवं झारखण्ड में भी।
95वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2010)अनुसूचित जाति/जनजाति के लिए आरक्षण की अवधि लोकसभा/राज्य की विधानसभा के लिए 60 वर्ष से बढ़ाकर 70 वर्ष (10 वर्ष के लिए)
96वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2011)‘उड़िया’ भाषा को ‘ओडिया’ में परिवर्तित किया गया।
97वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2012)अनुच्छेद 19 (1)(c) में ‘सहकारी समितियाँ’ शब्द को जोड़ा गया।
98वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2013) हैदराबाद-कर्नाटक क्षेत्र को विकसित करने हेतु कर्नाटक के राज्यपाल को सशक्त करने के लिए।
99वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2014)सर्वोच्च न्यायालय और उच्च-न्यायालयों में जजों की नियुक्ति एवं स्थानान्तरण के लिए “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” (वर्तमान के कोलिजियम सिस्टम के स्थान पर) की स्थापना हेतु। (16 अक्टूबर, 2015 को सुप्रीम कोर्ट ने “राष्ट्रीय न्यायिक नियुक्ति आयोग” को असंवैधानिक बताते हुये खारिज कर दिया अब वर्तमान में कोलिजियम सिस्टम ही मान्य है)
100वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2015)भारत-बांग्लादेश के मध्य भूमि सीमा समझौते से सम्बन्धित।
101वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2016)वस्तु एवं सेवा कर (GST)
102वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2016)राष्ट्रीय पिछड़ा वर्ग आयोग को संवैधानिक दर्जा दिया गया। (अनुच्छेद 342(क))
103वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2016)आर्थिक रूप से पिछड़े वर्गों को सरकारी नौकरियों एवं शिक्षण संस्थानों में 10% आरक्षण की व्यवस्था।
104वाँ संविधान संशोधन अधिनियम, (2016)अनुसूचित जाति/जनजाति के लोकसभा/विधानसभा में आरक्षण की अवधि को १० वर्ष (२५ जनवरी २०२० से बढ़ाकर २५ जनवरी २०३०) तक कर दिया गया) के लिए बढ़ा दिया गया। इसके अतिरिक्त एंग्लो इंडियन (दो सदस्यो का मनोनयन आरक्षण) को नामित करने के प्रावधान समाप्त कर दिया गया।

मूल अधिकार एवं संविधान संशोधन

संसद द्वारा अनुच्छेद 368 के अन्तर्गत क्या मूल अधिकारों (Fundamental Rights) में संशोधन किया जा सकता है? इस प्रश्न पर सर्वप्रथम एक निर्णय शंकरी प्रसाद मामले (1952) में देते हुए उच्चतम न्यायालय ने कहा कि संसद को अनुच्छेद 368 के तहत प्राप्त संशोधन की शक्ति में मूल अधिकारों का संशोधन भी शामिल है।

अतः संसद किसी भी मूल अधिकार को संविधान संशोधन अधिनियम द्वारा कम कर सकती है या प्रतिबन्ध लगा सकती है। ऐसा संशोधन अनुच्छेद 13 के तहत अमान्य नहीं होगा, परन्तु गोलकनाथ मामले (196) में उच्चतम न्यायालय ने पूर्व के निर्णय को पलटते हुए कहा कि मूल अधिकार श्रेष्ठ और प्रतिरक्षित हैं। अत: संसद द्वारा इसमें संशोधन कर किसी मूल अधिकार को न कम किया जा सकता है और न ही हटाया जा सकता है।

इस पर संसद ने गोलकनाथ मामले (1967) में उच्चतम न्यायालय के फैसले पर 24वें संशोधन अधिनियम (1971) को प्रभावी बनाकर प्रतिक्रिया दी। इस अधिनियम ने अनुच्छेद 13 और 368 को संशोधित किया। इसने घोषणा की कि अनुच्छेद 368 के तहत संसद को मूल अधिकारों को कम करने एवं समाप्त करने का अधिकार है और ऐसा अधिनियम अनुच्छेद 13 के अर्थ के अन्तर्गत बाधित नहीं होगा। वर्ष 1973 में केशवानन्द भारती मामले में गोलकनाथ मामले के निर्णय को उच्चतम न्यायालय ने पुनः परिवर्तित करते हुए तथा 24वें संविधान संशोधन (1971) की वैधता को बरकरार रखते हुए सुनिश्चित किया कि संसद को यह अधिकार है कि वह मूल अधिकारों को कम या समाप्त कर सकती है, परन्तु संसद अनुच्छेद 368 के तहत संविधान के मूल Structure) को परिवर्तित नहीं कर सकती है, इसका तात्पर्य है कि संविधान के मूल ढाँचे का हिस्सा बन चुके मूल अधिकारों को संसद न कम कर सकती है और न हटा सकती है। पुनः संसद ने 42वें संविधान संशोधन अधिनियम, 1976 के द्वारा न्यायपालिका के सिद्धान्त पर प्रतिक्रिया देते हुए घोषणा की कि संसद की ठोस शक्तियों की कोई सीमा नहीं है और किसी भी संशोधन को मूल अधिकारों से जोड़ने के आधार पर किसी न्यायालय में प्रश्न नहीं उठाया जा सकता।

यद्यपि मिनर्वा मिल्स मामले (1980) में उच्चतम न्यायालय ने इस व्यवस्था को अवैध बताया, जिसमें संविधान के मूल ढाँचे को न्यायिक समीक्षा (Judicial Review) से बाहर किया गया। पुनः वामन राव मामले (1981) में उच्चतम न्यायालय द्वारा मूल ढाँचे की बात को दोहराया गया और स्पष्ट किया कि संवैधानिक संशोधन 24 अप्रैल, 1973 (केशवानन्द भारती मामले के फैसले की तारीख) के बाद प्रभावी होगा।

संविधान के मूल ढाँचे की विशेषता

अनुच्छेद 368 के तहत संसद को संविधान के मूल ढाँचे में परिवर्तित किए बिना संविधान संशोधन की शक्ति दी गई। यद्यपि अभी तक उच्चतम न्यायालय ने मूल ढाँचे की परिभाषा नहीं दी है, पर अनेक फैसलों से संविधान के मूल ढाँचे में निम्नलिखित को जोड़ा गया

  • संविधान की सर्वोच्चता
  • संविधान की धर्मनिरपेक्ष (Secular) छवि
  • विधायिका, कार्यपालिका एवं न्यायपालिका की शक्तियों में विभाजन
  • राष्ट्र की एकता और अखण्डता
  • विधि का शासन
  • मूल अधिकारों एवं निदेशक तत्त्वों के बीच सामंजस्य एवं सन्तुलन
  • समानता का सिद्धान्त
  • न्यायपालिका की स्वतन्त्रता
  • संविधान संशोधन के सम्बन्ध में संसद की सीमित शक्तियाँ
  • न्याय उपलब्धता।

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