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महिला क्रांतिकारी के नाम और कहानी (Women’s Revolutionary Name and Story)

वीरांगनाओं की साहस, संघर्ष और देशभक्ति की कहानी 

आज़ादी के 69 वर्षों बाद भी भारतियों के दिलों में उन शख़्शियतों के लिए इज़्जत कम नहीं हुई है, जिन्होंने भारत को आज़ाद करवाने में अहम भूमिका निभाई थी. आज भी स्वतंत्रता दिवस पर लोग भारी मात्रा में एकत्रित हो कर इस आज़ाद जीवन के लिए उन स्वतंत्रता सेनानियों का शुक्रिया अदा करते हैं. इन जांबाज़ों ने भारत की आज़ादी के लिए अपने क्षेत्रों, मतभेदों को भुला कर सभी वर्ग (चाहे वह अमीर हों या गरीब, महिलाएं हों या पुरुष, बच्चे हों या फ़िर बुज़ुर्ग) एकजुट हुए और अंग्रेजों को भारत छोड़ने पर मजबूर कर दिया. उन साहसी लोगों या स्वतंत्रता सेनानियों से जुड़ी सम्मान, साहस और देशभक्ति की कहानियां आज भी हमारी आंखों को नम कर देती हैं.इतिहास गवाह है कि महिलाओं ने समय-समय पर अपनी बहादुरी और साहस का प्रयोग कर पुरुषों के साथ कंधे से कंधा मिला कर चली हैं.

आईये ज़रा उन महिलाओं को याद करें जिन्होंने भारत को आज़ाद कराने में प्रमुख भूमिका निभाई थी. 

1. ऊषा मेहता सावित्रीबाई फूलेUsha Mehta Savitribai Phule)

ऊषा गुजरात में सूरत के पास सारस गांव में पैदा हुए थी। जब वह सिर्फ पांच वर्ष की थी, तब अहमद ने अहमदाबाद आश्रम की यात्रा पर गांधी को पहली बार देखा। इसके कुछ ही समय बाद, गांधी ने अपने गांव के पास एक शिविर का आयोजन किया सत्रों में भाग लेना और थोड़ा कताई करना जिसमें ऊषा ने बहुत कम भाग लिया, 1 9 28 में, आठ साल की ऊषा ने साइमन कमीशन के खिलाफ विरोध प्रदर्शन में हिस्सा लिया और ब्रिटिश राज के खिलाफ विरोध में “साइमन गो बैकअपने पहले शब्दों को चिल्लाया  और अन्य बच्चों ने शराब की दुकानों के सामने ब्रिटिश राज के सामने धरना के विरोध में भाग लिया। इन विरोध प्रदर्शनों के दौरान पुलिसकर्मियों ने उन में से एक बच्चों पर आरोप लगाया जिससे  ध्वज को ले जाने वाली लड़की ध्वज के साथ गिर गई। इस घटना पर गुस्सा, बच्चों ने अपने माता-पिता को लिया। बड़ों ने भारतीय ध्वज के रंगों (केसर, सफ़ेद और हरे रंग) में बच्चों को ड्रेसिंग करके जवाब दिया और कुछ दिन बाद उन्हें सड़कों पर भेज दिया। ध्वज के रंगों में कपड़े पहने हुए, बच्चों ने फिर से चढ़ाई करते हुए चिल्लाया: “पुलिसकर्मियों, आप अपनी छड़ी और अपने बन्दों को फिराना कर सकते हैं, लेकिन आप हमारे झंडे को नीचे नहीं ला सकते हैं।”उषा के पिता ब्रिटिश राज के अधीन एक जज थे इसलिए उन्होंने उसे स्वतंत्रता संग्राम में भाग लेने के लिए प्रोत्साहित नहीं किया। हालांकि,जब उनके पिता 1 9 30 में सेवानिवृत्त हुए उन्हें इस सीमा को हटा दिया गया । 1 9 32 में, जब ऊषा 12 वर्ष की  थी , उनका परिवार बंबई में स्थानांतरित हो गया, जिससे वह स्वतंत्रता आंदोलन में और अधिक सक्रिय रूप से भाग ले सके। ऊषा और अन्य बच्चों ने गुप्त बुलेटिनों और प्रकाशनों को वितरित किया, जेलों में रिश्तेदारों का दौरा किया और इन कैदियों को संदेश भेजे। उन्होंने जीवन के लिए ब्रह्मचर्य बने रहने का एक प्रारंभिक निर्णय लिया और एक संयमी, गांधीवादी जीवन शैली का निर्माण किया, केवल खादी कपड़े पहने और सभी प्रकार के विलासिता से दूर रखने के लिए। समय के साथ, वह गांधीवादी विचार और दर्शन के प्रमुख प्रत्याशी के रूप में उभरी।ऊषा की प्रारंभिक शिक्षा खेड़ा भरूच में और फिर चांदारामजी हाई स्कूल, बॉम्बे में थी। 1 9 35 में, उनकी मैट्रिक परीक्षाओं ने उसे अपनी कक्षा में शीर्ष 25 छात्रों में रखा था। उन्होंने विल्सन कॉलेज, बॉम्बे में अपनी शिक्षा को जारी रखा, 1 9 3 9 में स्नातक होने के बाद दर्शन में प्रथम श्रेणी की डिग्री प्राप्त की। उन्होंने कानून का अध्ययन भी शुरू किया, लेकिन 1 9 42 में भारत छोड़ो आंदोलन में शामिल होने के लिए अपना अध्ययन समाप्त कर दिया। इसके बाद, 22 वर्ष की आयु से शुरू होकर, उन्होंने पूर्णकालिक स्वतंत्रता आंदोलन में भाग लिया।

2. दुर्गा बाई देशमुख (Durga Bai Deshmukh)

दुर्गाबाई देशमुख 15 जुलाई 1 909 को काकीनाडा में पैदा हुई थी। वे एक मध्यवर्गीय आंध्र परिवार के थे। 12 साल की उम्र में वह गांधीजी से बेहद प्रभावित हुई और उन्होंने भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन में हिस्सा लिया। दुर्गाबाई देशमुख ने अंग्रेजी शिक्षण विद्यालय के खिलाफ विरोध किया और हिंदी राष्ट्रभाषा प्रचार आंदोलन में भाग लिया। वह विदेशी वस्तुओं के खिलाफ अभियान में भी शामिल हो गई और चरखा कताई शुरू कर दिया।महिलाओं के बीच शिक्षा बढ़ाने के लिए दुर्गाबाई देशमुख ने 1922 में बालिका हिंदी पाठशाला की स्थापना की। उसने 1930 में नमक सत्याग्रह का सफलतापूर्वक नेतृत्व किया। ब्रिटिश सरकार ने उन्हें तीन बार कैद कर लिया था। 1933 में  दुर्गाबाई देशमुख को  रिहा किया गया था। उसके बाद बीए डिग्री प्राप्त की। 1933 में उन्होंने आम महिलाओं की दुर्दशा को खत्म करने के लिए मद्रास में आंध्र महिला सभा की स्थापना की वह ब्लाइंड रिलीफ एसोसिएशन के अध्यक्ष बनी और उनके लिए एक स्कूल-छात्रावास और एक हल्की इंजीनियरिंग कार्यशाला की स्थापना की। नियोजन आयोग के सदस्य दुर्गाबाई देशमुख ने समाज के गरीब और कमजोर वर्ग के लिए आवाज उठाई।दुर्गाबाई देशमुख ने गरीब लोगों को न्याय प्रदान करने के लिए कई सामाजिक कानूनों को पेश किया। वह केंद्रीय समाज कल्याण बोर्ड के संस्थापक अध्यक्ष थे। बोर्ड के तत्वावधान में काम करने वाले कई संगठन महिलाओं, बच्चों और विकलांगों को सहायता प्रदान की। उन्होंने नई दिल्ली में सामाजिक विकास के लिए परिषद की स्थापना की। दुर्गाबाई देशमुख ने सामाजिक कल्याण और साक्षरता में उनके आजीवन योगदान के लिए नेहरू साक्षरता पुरस्कार और यूनेस्को पुरस्कार प्राप्त किया। उन्हें भारत सरकार द्वारा पदम विभूषण से भी सम्मानित किया गया। दुर्गाबाई देशमुख को भारत में ‘सामाजिक कार्यकर्ता की माँ’ कहा जाता था। 9 मई 1981 को उनकी मृत्यु हो गई

3. अरूणा आसफ़ अली (Aruna Asaf Ali) 

अरुणा असफ अली का जन्म 16 जुलाई, 1908 को कालाका (हरियाणा) में एक रूढ़िवादी हिंदू बंगाली परिवार में हुआ था। वह लाहौर में सेक्रेड हार्ट कॉन्वेंट में शिक्षित हुई थी, स्कूल से स्नातक होने के बाद, कलकत्ता के गोखले मेमोरियल स्कूल में शिक्षित हुई  इलाहाबाद में उनकी , मुलाकातअपने भविष्य के पति, असफ अली से हुई जो एक 23 वर्ष की उम्र से अधिक प्रमुख कांग्रेसी थे। उनका धर्म और उम्र दोनों के आधार पर माता-पिता के विरोध के खिलाफ 1928 में विवाह हुआ था।अरुणा असफ अली भारत की स्वतंत्रता संग्राम की एक महान नायिका थीं। भारत के आन्दोलन के दौरान 1942 में गणना के उनके पल आने लगे और वह इस अवसर पर पहुंचे। उन्होंने भारत छोड़ो आंदोलन के प्रारंभ को दर्शाने के लिए गोवालिया टैंक मैदान पर राष्ट्रीय ध्वज फहराया और हजारों युवाओं के लिए एक पौराणिक कथा बन गई अरुणा असफ अली ने भारत छोड़ो आंदोलन के दौरान एक प्रमुख भूमिका निभाई; दिल्ली के पहले महापौर के रूप में निर्वाचित; 1975 में शांति के लिए लेनिन पुरस्कार और 1991 के लिए अंतर्राष्ट्रीय समझ के लिए और 1 998 में भारत रत्न के साथ  जवाहर लाल नेहरू ने पुरस्कार से सम्मानित किया

4. सुचेता क्रिपलानी (Sucheta Cripalani) 

सुचेता क्रिपलानी का जन्म 25 जून, 1908 को भारत के हरियाणा राज्य के अम्बाला शहर में हुआ। उनकी शिक्षा लाहौर और दिल्ली में हुई थी। 1963 से 1967 तक वह उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री रहीं। सुचेता कृपलानी देश की पहली महिला मुख्यमंत्री थीं। वे बंटवारे की त्रासदी में महात्मा गांधी के बेहद क़रीब रहीं। सुचेता कृपलानी उन चंद महिलाओं में शामिल थीं, जिन्होंने बापूके क़रीब रहकर देश की आज़ादी की नींव रखी। वह नोवाखली यात्रा में बापू के साथ थीं। वर्ष 1963 में उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री बनने से पहले वह लगातार दो बार लोकसभा के लिए चुनी गईं। सुचेता दिल की कोमल तो थीं, लेकिन प्रशासनिक फैसले लेते समय वह दिल की नहीं, दिमाग की सुनती थीं। उनके मुख्यमंत्री काल के दौरान राज्य के कर्मचारियों ने लगातार 62 दिनों तक हड़ताल जारी रखी, लेकिन वह कर्मचारी नेताओं से सुलह को तभी तैयार हुईं, जब उनके रुख़ में नरमी आई। जबकि सुचेता के पति आचार्य कृपलानी खुद समाजवादी थे। आज़ादी के आंदोलन में भाग लेने के लिए उन्हें जेल की सज़ा हुई। 1946में वह संविधान सभा की सदस्य चुनी गईं। 1948 से 1960 तक वह भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की महासचिव थीं भारत छोड़ो आंदोलन में सुचेता क्रिपलानी ने लड़कियों को ड्रिल और लाठी चलाना सिखाया। नोआखली के दंगा पीड़ित इलाकों में गांधी जी के साथ चलते हुए पीड़ित महिलाओं की मदद की। 15 अगस्त, 1947 को संविधान सभा में वन्देमातरम् गाया। उत्तर प्रदेश की मुख्यमंत्री के रूप में उन्होंने राज्य कर्मचारियों की हड़ताल को मजबूत इच्छाशक्ति के साथ वापस लेने पर मजबूर किया। वे पहले साम्यवाद से प्रभावित हुईं और फिर पूरी तरह गांधीवादी हो गईं। उत्तर प्रदेश की पहली महिला मुख्यमंत्री सुचेता क्रिपलानी की जिंदगी के ये पहलू उन्हें ऐसी महिला की पहचान देते हैं, जिसमें अपनत्व और जुझारूपन कूट-कूट कर भरा था। एक शख्सीयत कई रूप- आज इतने गुणों वाले राजनेता शायद ही मिलें। भारत छोड़ो आंदोलन में जब सारे पुरुष नेता जेल चले गए तो सुचेता क्रिपलानी ने अलग रास्ते पर चलने का फैसला किया। ‘बाकियों की तरह मैं भी जेल चली गई तो आंदोलन को आगे कौन बढ़ाएगा।’ वह भूमिगत हो गईं। उस दौरान उन्होंने कांग्रेस का महिला विभाग बनाया और पुलिस से छुपते-छुपाते दो साल तक आंदोलन भी चलाया। इसके लिए अंडरग्राउण्ड वालंटियर फोर्स बनाई। लड़कियों को ड्रिल, लाठी चलाना, प्राथमिक चिकित्सा और संकट में घिर जाने पर आत्मरक्षा के लिए हथियार चलाने की ट्रेनिंग भी दी। राजनीतिक कैदियों के परिवार को राहत देने का जिम्मा भी उठाती रहीं। दंगों के समय महिलाओं को राहत पहुंचाने, चीन हमले के बाद भारत आए स्वतंत्रता आंदोलन में श्रीमती सुचेता कृपलानी के योगदान को हमेशा याद किया जाएगा। 1 दिसंबर, 1974 को उनका निधन हो गया। उनके शोक पे संदेश में श्रीमती इंदिरा गांधी ने कहा कि “सुचेता जी ऐसे दुर्लभ साहस और चरित्र की महिला थीं, जिनसे भारतीय महिलाओं को सम्मान मिलता है।”

5. विजयलक्ष्मी पंडित (Vijayalakshmi Pandit)

राजनीतिज्ञ, स्वतंत्रता सेनानी और देश की प्रमुख महिला नेत्रियों में से एक विजयलक्ष्मी पण्डित का जन्म 18 अगस्त, 1900में  इलाहाबाद, उत्तर प्रदेश में हुआ था। ये पण्डित मोतीलाल नेहरू की पुत्री तथा जवाहरलाल नेहरू की बहन थीं। विजयलक्ष्मी पण्डित का बचपन का नाम ‘स्वरूप’ था, उन्होंने अपनी सारी शिक्षा एक अंग्रेज़ अध्यापिका से घर पर ही प्राप्त की थी। भारत के लिए ‘नेहरू परिवार’ ने जो महान बलिदान और योगदान किया है, राष्ट्र उसे हमेशा याद रखेगा। विजयलक्ष्मी पण्डित ने भी देश की स्वतंत्रता में महत्त्वपूर्ण योगदान दिया था, जिसे भुलाया नहीं जा सकता। ‘सविनय अवज्ञा आंदोलन’ में भाग लेने के कारण उन्‍हें जेल में बंद किया गया था। विजयलक्ष्मी एक पढ़ी-लिखी और प्रबुद्ध महिला थीं और विदेशों में आयोजित विभिन्‍न सम्‍मेलनों में उन्‍होंने भारत का प्रतिनिधित्‍व किया था। भारत के राजनीतिक इतिहास में वह पहली महिला मंत्री थीं। संयुक्‍त राष्‍ट्र की पहली भारतीय महिला अध्‍यक्ष भी वही थीं। विजयलक्ष्मी पण्डित स्‍वतंत्र भारत की पहली महिला राजदूत थीं, जिन्‍होंने मॉस्‍को, लंदन और वॉशिंगटन में भारत का प्रतिनिधित्‍व किया था।वर्ष 1919 ई. में महात्मा गाँधी ‘आनन्द भवन’ में आकर रुके तो विजयलक्ष्मी पण्डित उनसे बहुत प्रभावित हुईं। इसके बाद उन्होंने गाँधीजी के असहयोग आन्दोलन’ में भी भाग लिया

इसी बीच 1921 मेंउनका विवाह बैरिस्टर रणजीत सीताराम पण्डित से हो गया। आन्दोलन में भाग लेने के कारण विजयलक्ष्मी पण्डित को 1932 में गिरफ़्तार भी किया गया। गाँधीजी का प्रभाव विजयलक्ष्मी पण्डित पर बहुत ज़्यादा था। वह गाँधीजी से प्रभावित होकर ही जंग-ए-आज़ादी में कूद पड़ी थीं। विजयलक्ष्मी पण्डित हर आन्दोलन में आगे रहतीं, जेल जातीं, रिहा होतीं और फिर से आन्दोलन में जुट जातीं।1937 के चुनाव में विजयलक्ष्मी उत्तरप्रदेश विधानसभा की सदस्य चुनी गईं। उन्होंने भारत की प्रथम महिला मंत्री के रूप में शपथ ली। मंत्री स्तर का दर्जा पाने वाली भारत की वह प्रथम महिला थीं। द्वितीय विश्वयुद्ध आरम्भ होने के बाद मंत्रिपद छोड़ते ही विजयलक्ष्मी पण्डित को फिर बन्दी बना लिया गया। जेल से बाहर आने पर 1942 के ‘भारत छोड़ो आन्दोलन’ में वे फिर से गिरफ़्तार की गईं, लेकिन बीमारी के कारण नौ महीने बाद ही उन्हें रिहा कर दिया गया। 14 जनवरी, 1944 को उनके पति रणजीत सीताराम पण्डित का निधन हो गया।विजयलक्ष्मी पण्डित देश-विदेश के अनेक महिला संगठनों से जुड़ी हुई थीं।वर्ष 1945 में विजयलक्ष्मी पण्डित अमेरिका गईं और अपने भाषणों के द्वारा उन्होंने भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में जोरदार प्रचार किया। 1946 में वे पुन: उत्तर प्रदेश विधान सभा की सदस्य और राज्य सरकार में मंत्री बनीं। स्वतंत्रता के बाद विजयलक्ष्मी पण्डित ने ‘संयुक्त राष्ट्र संघ’ में भारत के प्रतिनिधि मण्डल का नेतृत्व किया और संघ में महासभा की प्रथम महिला अध्यक्ष निर्वाचित की गईं। विजयलक्ष्मी पण्डित ने रूस, अमेरिका, मैक्सिको, आयरलैण्ड और स्पेन में भारत के राजदूत का और इंग्लैण्ड में हाई कमिश्नर के पद पर कार्य किया। 1952 और 1964 में वे लोकसभा की सदस्य चुनी गईं। वे कुछ समय तक महाराष्ट्र की राज्यपाल भी रही थीं। अंतिम दिनों में वे केन्द्र की कांग्रेस सरकार की नीतियों की आलोचना करने लगी थीं। वर्ष 1990 में विजयलक्ष्मी पण्डित का निधन हुआ।

6. कमला नेहरू (Kamla Nehru)

जवाहरलाल नेहरु की बीवीऔर इंदिरा गांधी की माँ कमला नेहरु (Kamla Nehru) का जन्म 1 अगस्त 1899 को दिल्ली में एक कश्मीरी परिवार में हुआ था | उनके पिता जवाहरलाल कौल एक साधारण व्यवसायी थे | उन दिनों लडकियों को घर से बाहर निकलने की स्वतंत्रता नही थी | उनको स्कूली शिक्षा भी नही दी जाती थी | कमला को भी घर पर ही हिंदी का साधारण ज्ञान मिल पाया था | वे देखने में बहुत सुंदर थी इसलिए मोतीलाल नेहर ने इंग्लैंड में पढ़ रहे अपने बेटे जवाहरलाल के लिए उन्हें पसंद किया |8 फरवरी 1916 को दोनों का विवाह हो गया | जवाहरलाल की उम्र उस समय 26 वर्ष और कमला की उम्र 17 वर्ष थी | मोतीलाल नेहरु के घर के पश्चिमी वातावरण से तालमेल बैठाने में काफी परेशानी हुयी | वह अंग्रेजी भाषा नही जानती थी इसलिए जैसा कि जवाहरलाल जी ने स्वयं लिखा है उन दोनों में भी आरम्भ में कम पटती थी | लेकिन कमला जी (Kamla Nehru) ने भारतीय आचार-विचार को छोड़े बिना नेहरु जी के राजनैतिक कार्यो में रूचि लेना और सक्रिय सहयोग आरम्भ किया | इससे दोनों के संबध मधुर हो गये थे |कमला जी (Kamla Nehru) ने स्वतंत्रता संग्राम में और महिला जागरण तथा स्वदेशी के प्रचार में सक्रिय भाग लिया | एक समय तो सब नेताओं के जेल में बंद हो जाने पर उन्होंने पुरे प्रदेश में कांग्रेस का नेतृत्व किया | 1931 में पुलिस ने उन्हें गिरफ्तार करके लखनऊ जेल में डाल दिया था | बचपन की स्वस्थ कमला जी को क्षय रोग ने घेर लिया था | देश-विदेश में उनका इलाज हुआ पर रोग से छुटकारा नही मिल सका और 28 फरवरी 1936 को स्विट्जरलैंड के एक चिकित्सालय में उनका देहांत हो गया |

 7. सरोजिनी नायडू  (Sarojini Naidu) 

सरोजिनी नायडू का जन्म 13 फरवरी 1879 में हुआ था। उनके पिता अघोरनाथ चट्टोपध्याय एक वैज्ञानिक और शिक्षाशास्त्री थे। उन्होंने हैदराबाद के निज़ाम कॉलेज की स्थापना की थी। उनकी मां वरदा सुंदरी कवयित्री थीं और बंगाली भाषा में कविताएं लिखती थीं। सरोजिनी आठ भाई-बहनों में सबसे बड़ी थीं। उनके एक भाई विरेंद्रनाथ क्रांतिकारी थे और एक भाई हरिद्रनाथ कवि, कथाकार और कलाकार थे। सरोजिनी नायडू होनहार छात्रा थीं और उर्दू, तेलगू, इंग्लिश, बांग्ला और फारसी भाषा में निपुण थीं। बारह साल की छोटी उम्र में उन्होंने मैट्रिक की परीक्षा पास कर ली थी। उन्होंने मद्रास प्रेसीडेंसी में पहला स्थान हासिल किया था। उनके पिता चाहते थे कि वो गणितज्ञ या वैज्ञानिक बनें परंतु उनकी रुचि कविता में थी। उनकी कविता से हैदराबाद के निज़ाम बहुत प्रभावित हुए और उन्होंने सरोजिनी नायडू को विदेश में पढ़ने के लिए छात्रवृत्ति दी। 16 वर्ष की आयु में वो इंग्लैंड गयीं। वहां पहले उन्होंने किंग कॉलेज लंदन में दाखिला लिया उसके बाद कैम्ब्रिज के ग्रीतान कॉलेज से शिक्षा हासिल की। वहां वे उस दौर के प्रतिष्ठित कवि अर्थर साइमन और इडमंड गोसे से मिलीं। इडमंड ने सरोजिनी को भारतीय विषयों को ध्यान में रख कर लिखने की सलाह दी। उन्होंने नायडू को भारत के पर्वतों, नदियों, मंदिरों और सामाजिक परिवेश को अपनी कविता में समाहित करने की प्रेरणा दी।उनके द्वारा संग्रहित ‘द गोल्डन थ्रेशहोल्ड’ (1905), ‘द बर्ड ऑफ़ टाइम’ (1912) और ‘द ब्रोकन विंग’ (1912) बहुत सारे भारतीयों और अंग्रेजी भाषा के पाठकों को पसंद आई। 15 साल की उम्र में वो डॉ गोविंदराजुलू नायडू से मिलीं और उनको उनसे प्रेम हो गया। डॉ गोविंदराजुलू गैर-ब्राह्मण थे और पेशे से एक डॉक्टर। अपनी पढ़ाई पूरी करने के बाद सरोजिनी ने 19 साल की उम्र में विवाह कर लिया। उन्होंने अंर्तजातीय विवाह किया था जो कि उस दौर में मान्य नहीं था। यह एक तरह से क्रन्तिकारी कदम था मगर उनके पिता ने उनका पूरा सहयोग किया था। उनका वैवाहिक जीवन सुखमय रहा और उनके चार बच्चे भी हुए – जयसूर्या, पदमज, रणधीर और लीलामणि। वर्ष 1905 में बंगाल विभाजन के दौरान वो भारतीय राष्ट्रीय आंदोलन में शामिल हुईं। इस आंदोलन के दौरान वो गोपाल कृष्ण गोखले, रवींद्रनाथ टैगोर, मोहम्मद अली जिन्ना, एनी बेसेंट, सीपी रामा स्वामी अय्यर, गांधीजी और जवाहर लाल नेहरू से मिलीं। भारत में महिला सशक्तिकरण और महिला अधिकार के लिए भी उन्होंने आवाज उठायी। उन्होंने राज्य स्तर से लेकर छोटे शहरों तक हर जगह महिलाओं को जागरूक किया। वर्ष 1925 में वो भारतीय राष्ट्रीय कांग्रेस की अध्यक्ष चुनी गयीं। सविनय अवज्ञा आंदोलन में वो गांधी जी के साथ जेल भी गयीं। वर्ष 1942 के  ̔भारत छोड़ो आंदोलन ̕  में भी उन्हें 21 महीने के लिए जेल जाना पड़ा। उनका गांधीजी से मधुर संबंध था और वो उनको मिकी माउस कहकर पुकारती थीं। स्वतंत्रता के बाद सरोजिनी भारत की पहली महिला राज्यपाल बनीं। उत्तर प्रदेश का राज्यपाल घोषित होने के बाद वो लखनऊ में बस गयीं। उनकी मृत्यु 2 मार्च 1949 को दिल का दौरा पड़ने से लखनऊ में हुई।   8. कस्तूरबा गांधी (Kasturba Gandhi) 

कस्तूरबा गाँधी का जन्म 11 अप्रैल 1869 ई. में महात्मा गाँधी की तरह काठियावाड़ के पोरबंदर नगर में हुआ था। इस प्रकार कस्तूरबा गाँधी आयु में गाँधी जी से 6 मास बड़ी थीं। कस्तूरबा गाँधी के पिता ‘गोकुलदास मकनजी’ साधारण स्थिति के व्यापारी थे। गोकुलदास मकनजी की कस्तूरबा तीसरी संतान थीं। उस जमाने में कोई लड़कियों को पढ़ाता तो था नहीं, विवाह भी अल्पवय में ही कर दिया जाता था। इसलिए कस्तूरबा भी बचपन में निरक्षर थीं और सात साल की अवस्था में 6 साल के मोहनदास के साथ उनकी सगाई कर दी गई। तेरह साल की आयु में उन दोनों का विवाह हो गया। बापू ने उन पर आरंभ से ही अंकुश रखने का प्रयास किया और चाहा कि कस्तूरबा बिना उनसे अनुमति लिए कहीं न जाएं, किंतु वे उन्हें जितना दबाते उतना ही वे आज़ादी लेती और जहाँ चाहतीं चली जातीं।पति-पत्नी 1888 ई. तक लगभग साथ-साथ ही रहे किंतु बापू के इंग्लैंड प्रवास के बाद से लगभग अगले बारह वर्ष तक दोनों प्राय: अलग-अलग से रहे। इंग्लैंड प्रवास से लौटने के बाद शीघ्र ही बापू को अफ्रीका चला जाना पड़ा। जब 1896 में वे भारत आए तब बा को अपने साथ ले गए। तब से बा बापू के पद का अनुगमन करती रहीं। उन्होंने उनकी तरह ही अपने जीवन को सादा बना लिया था। वे बापू के धार्मिक एवं देशसेवा के महाव्रतों में सदैव उनके साथ रहीं। यही उनके सारे जीवन का सार है। बापू के अनेक उपवासों में बा प्राय: उनके साथ रहीं और उनकी सार सँभाल करती रहीं। जब 1932 में हरिजनों के प्रश्न को लेकर बापू ने यरवदा जेल में आमरण उपवास आरंभ किया उस समय बा साबरमती जेल में थीं। उस समय वे बहुत बेचैन हो उठीं और उन्हें तभी चैन मिला जब वे यरवदा जेल भेजी गर्इं

9. मैडम भीकाजी कामा (Madam Bhikaji Kama)  

भीकाजी कामा का जन्म 24 सितम्बर 1861 को बम्बई में एक पारसी परिवार में हुआ था। मैडम कामा के पिता प्रसिद्ध व्यापारी थे। इनके पिता का नाम सोराबजी पटेल था। भीखाजी के नौ भाई-बहन थे। उनका विवाह 1885 में एक पारसी समाज सुधारक रुस्तम जी कामा से हुआ था।भीकाजी ने लन्दन, जर्मनी तथा अमेरिका का भ्रमण कर भारत की स्वतंत्रता के पक्ष में माहौल बनाया था। वे जर्मनी के स्टटगार्ट नगर में 22 अगस्त 1907 में हुई सातवीं अंतर्राष्ट्रीय कांग्रेस में तिरंगा फहराने के लिए विख्यात हुईं। उन्होंने अपनी शिक्षा एलेक्जेंड्रा नेटिव गल्र्स संस्थान में प्राप्त की थी और वह शुरू से ही तीव्र बुद्धि वाली और संवेदनशील थी। वे हमेशा ब्रिटिश साम्राज्य विरोधी गतिविधियों में लगी रहती थी। वर्ष 1896 में मुम्बई में प्लेग फैलने के बाद भीकाजी ने इसके मरीजों की सेवा की थी। बाद में वह खुद भी इस बीमारी की चपेट में आ गई थीं। इलाज के बाद वह ठीक हो गई थीं लेकिन उन्हें आराम और आगे के इलाज के लिए यूरोप जाने की सलाह दी गई। वर्ष 1906 में उन्होंने लन्दन में रहना शुरू किया जहां उनकी मुलाक़ात प्रसिद्ध भारतीय क्रांतिकारी श्यामजी कृष्ण वर्मा, हरदयाल और वीर सावरकर से हुई। लंदन में रहते हुए वह दादाभाई नवरोजी की निची सचिव भी थीं। दादाभाई नोरोजी ब्रिटिश हाउस ऑफ़ कॉमन्स का चुनाव लड़ने वाले पहले एशियाई थे। जब वो हॉलैंड में थी, उस दौरान उन्होंने अपने साथियों के साथ मिलकर क्रांतिकारी रचनाएं प्रकाशित करायी थी और उनको लोगों तक पहुंचाया भी। वे जब फ्रांस में थी तब ब्रिटिश सरकार ने उनको वापस बुलाने की मांग की थी पर फ्रांस की सरकार ने उस मांग को खारिज कर दिया था। इसके पश्चात ब्रिटिश सरकार ने उनकी भारतीय संपत्ति जब्त कर ली और भीखाजी कामा के भारत आने पर रोक लगा दी। उनके सहयोगी उन्हें भारतीय क्रांति की माता मानते थे, जबकि अंग्रेज उन्हें कुख्यात् महिला, खतरनाक क्रांतिकारी, अराजकतावादी क्रांतिकारी, ब्रिटिश विरोधी तथा असंगत कहते थे।उनके सम्मान में भारत में कई स्थानों और गलियों का नाम उनके नाम पर रखा गया है। 26 जनवरी 1962 में भारतीय डाक ने उनके समर्पण और योगदान के लिए उनके नाम का डाक टिकट जारी किया था। भारतीय तटरक्षक सेना में जहाजों का नाम भी उनके नाम पर रखा गया था। देश की सेवा और स्वतंत्रता के लिए सब कुछ कुर्बान कर देने वाली इस महान महिला की मृत्यु 1936 में मुम्बई के पारसी जनरल अस्पताल में हुयी। उस वक्त उनके मुख से निकले आखिरी शब्द थे  ̔वंदे मातरम’ !

10 एनी बेसेन्ट (Annie Besant)  

एनी बेसेंट का जन्म 1 अक्टूबर 1847 को, एमिली मॉरिस और विलियम वुड के घर, लंदन में हुआ और उनकी मृत्यु 20 सितम्बर 1933 को मद्रास (भारत) में हुई थी। वो प्रसिद्ध ब्रिटिश समाज सुधारक, महिला अधिकारों की समर्थक, थियोसोफिस्ट, लेखक तथा वक्ता होने के साथ ही आयरिश तथा भारत की आजादी की समर्थक थी।20 साल की आयु में उनकी शादी फ्रैंक बेसेंट से हुई किन्तु शीघ्र ही अपने पति से धार्मिक मतभेदों के कारण अलग हो गयी। उसके बाद वो राष्ट्रीय सेक्युलर सोसायटी की प्रसिद्ध लेखिका और वक्ता बन गयी और चार्ल्स ब्रेडलॉफ के सम्पर्क में आयीं। वो 1877 में प्रसिद्ध जन्म नियंत्रक प्रचारक चार्ल्स नोल्टन की एक प्रसिद्ध किताब प्रकाशित करने के लिये चुनी गये। 1880 में उनके करीबी मित्र चार्ल्स ब्रेडलॉफ नार्थ हेम्प्टन के संसद के सदस्य चुने गये। तब वो फैबियन सोसायटी के साथ ही मार्क्सवादी सोशल डेमोक्रेटिक फेडरेशन (एसडीएफ) की भी प्रमुख प्रवक्ता बन गयी। उनका चयन लंदन बोर्ड स्कूल के हैमिलटन टावर के लिये किया गया।वो 1890 में हेलेना ब्लावस्टकी से मिली और थियोसोफी में रुचि लेने लगी। वो इस सोसायटी की सदस्य बन गयी और थियोसोफी में सफलता पूर्वक भाषण दिया। थियोसिफिकल सोसायटी के कार्यों के दौरान 1898 में वो भारत आयी। 1920 में इन्होंने केन्द्रीय हिन्दू कॉंलेज की स्थापना में मदद की। कुछ साल बाद वह ब्रिटिश साम्राज्य के कई हिस्सों में विभिन्न लॉज स्थापित करने में सफल हो गयी। 1907 में एनी बेसेंट थियोसोफिकल सोसायटी की अध्यक्ष बनी। वो भारतीय राजनीति में शामिल हो गयी और भारतीय राष्ट्रीय काग्रेंस से जुड़ गयी।

11. बेगम हज़रत महल (Begum Hazrat Mahal) 

बेगम हज़रत महल का जन्म अवध प्रांत के फैजाबाद जिले में सन 1820 में हुआ था। उनके बचपन का नाम मुहम्मदी खातून था। वे पेशे से गणिका थीं और जब उनके माता-पिता ने उन्हें बेचा तब वे शाही हरम में एक खावासिन के तौर पर आ गयीं। इसके बाद उन्हें शाही दलालों को बेच दिया गया जिसके बाद उन्हें परी की उपाधि दी गयी और वे ‘महक परी’ कहलाने लगीं। जब अवध के नबाब ने उन्हें अपने शाही हरम में शामिल किया तब वे बेगम बन गयीं और ‘हज़रात महल’ की उपाधि उन्हें अपने पुत्र बिरजिस कादर के जन्म के बाद मिली।वे ताजदार-ए-अवध नवाब वाजिद अली शाह की पत्नी थी। जब सन 1856 में अंग्रेजों ने अवध पर कब्ज़ा कर नवाब को कोलकाता भेज दिया तब बेगम हज़रत महल ने अवध का बागडोर सँभालने का फैसला किया। उन्होंने अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को गद्दी पर बिठाकर अंग्रेज़ी सेना का स्वयं मुक़ाबला किया।सन 1857-58 के प्रथम स्वतंत्रता संग्राम के दौरान, राजा जयलाल सिंह के नेतृत्व में बेगम हज़रात महल के समर्थकों ने ब्रिटिश ईस्ट इंडिया कंपनी के सेना के विरुद्ध विद्रोह कर दिया और लखनऊ पर कब्ज़ा कर लिया। लखनऊ पर कब्ज़े के बाद हज़रात महल अपने नाबालिग पुत्र बिरजिस कादर को अवध की गद्दी पर बिठा दिया। इसके पश्चात जब कंपनी की सेना ने लखनऊ और अवध के ज्यादातर भाग पर फिर से कब्ज़ा जमा लिया तब बेगम हज़रत महल को पीछे हटना पड़ा।इसके पश्चात उन्होंने नाना साहेब (पेशवा, जिन्होंने कानपुर में अंग्रेजों के खिलाफ विद्रोह का नेतृत्व  किया) के साथ मिलकर काम किया और फिर फैजाबाद के मौलवी के साथ मिलकर शाहजहाँपुर आक्रमण को अंजाम दिया। उन्होंने अंग्रेजों पर हिन्दुओं और मुसलमानों के धर्म में दखलंदाजी करने का आरोप लगाया।

12. रानी लक्ष्मीबाई (Rani Lakshmibai) 

‘रानी लक्ष्मीबाई’ का जन्म 19 नवंबर 1835 को काशी में हुआ था। इनके पिता का नाम मोरोपंत ताम्बे था। इनकी माता का नाम भागीरथी बाई था। लक्ष्मीबाई के बचपन का नाम मणिकर्णिका था परन्तु प्यार से उन्हें मनु कहा जाता था। रानी लक्ष्मीबाई का विवाह 1842 में गंगाधर राव से हुआ। गंगाधर राव झांसी के राजा थे। 1851 में उनको पुत्र रत्न की प्राप्ति हुई, किन्तु चार माह पश्चात उस बालक का निधन हो गया। राजा गंगाधर राव इस सदमे को बर्दाश्त न कर सके और लम्बी अस्वस्थता के बाद 21 नवंबर 1853 को उनका निधन हो गया।झांसी 1857 के विद्रोह का एक प्रमुख केन्द्र बन गया था। रानी लक्ष्मीबाई ने झांसी की सुरक्षा को सुदृढ़ करना शुरू कर दिया और एक स्वयंसेवक सेना का गठन प्रारम्भ किया। इस सेना में महिलाओं की भर्ती भी की गयी और उन्हें युद्ध प्रशिक्षण भी दिया गया। साधारण जनता ने भी इस विद्रोह में सहयोग दिया। 1857 में पड़ोसी राज्य ओरछा तथा दतिया के राजाओं ने झांसी पर आक्रमण कर दिया। रानी ने सफलता पूर्वक इसे विफल कर दिया। 1858 के मार्च माह में ब्रितानी सेना ने झांसी शहर को घेर लिया। दो हफ़्तों की लड़ाई के बाद ब्रितानी सेना ने शहर पर क़ब्ज़ा कर लिया। परन्तु रानी, अपने दत्तक पुत्र दामोदर राव के साथ अंग्रेज़ो से बच कर भागने में सफल हो गयी। रानी झाँसी से भाग कर कालपी पहुँची और तात्या टोपे से मिली। 18 जून, 1858 को रानी लक्ष्मीबाई ने वीरगति प्राप्त की।

13. डॉ. लक्ष्मी सेहगल (Dr. Lakshmi Sehgal)

लक्ष्मी सेहगल का जन्म 1 9 14 में एक पारंपरिक तमिल परिवार में हुआ था। वह अपनी मां से अपना पहला देशभक्तिपूर्ण सबक पाई, जो खुद कांग्रेस के सदस्य थे। उसने मद्रास मेडिकल कॉलेज से चिकित्सा में अपनी डिग्री पूरी की और डॉक्टर के रूप में कैरियर के लिए सिंगापुर गए, हालांकि उसके लिए कुछ बहुत अलग इंतजार कर रहा था। उस समय सिंगापुर में अंग्रेजों ने शासन किया था और जब जापानी ने देश पर आक्रमण किया तब उन्हें आत्मसमर्पण करना पड़ा। हजारों भारतीयों को कैदी के रूप में लिया गया इस मौके पर नेताजी ने भारतीय कैदियों को आईएनए में शामिल होने और ब्रिटिशों के खिलाफ लड़ने के लिए आमंत्रित किया। लक्ष्मी उनमें से एक थी और नेताजी ने उनके साहस से प्रभावित हुए और राणी झाशी रेजिमेंट की अगुवाई करने के लिए कहा। वह बर्मा के जंगलों में अंग्रेजों के खिलाफ एक बाघ की तरह लड़ी हुई थी। आज आठवां, कैप्टन लक्ष्मी सेहगल का अभी भी एक ही अदम्य रवैया है और कानपुर में एक अभ्यास चिकित्सक है। वह सेमिनार और सम्मेलन का एक बड़ा आकर्षण है और अभी भी सोसाइटी की भलाई के लिए काम कर रही है।

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