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बायो टॉयलेट की जानकारी | Bio toilet details

भारतीय रेलवे की पटरियों को शिट फ्री बनाने के लिए भाजपा के नेतृत्व वाली केंद्र सरकार ने 2016-17 वित्त वर्ष के लिए 17 हजार बायो टॉयलेट लगाने की घोषणा की है। संसद में रेलवे बजट पेश करने के दौरान रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने डिब्रूगढ़ राजधानी ट्रेन का भी उल्लेख किया था। यह ट्रेन दुनिया के पहले बायो वैक्यूम टॉयलेट युक्त ट्रेन है जिसे भारतीय रेलवे ने पिछले साल पेश किया था।

 पर्यावरण हितैषी तकनीक की चर्चा करते हुए प्रभु ने कहा कि भारतीय रेलवे में अब तक 17,388 पारंपरिक शौचालयों को बदलकर बायो टॉयलेट लगा दिए गए हैं।

फ्लश टायलेट के आविष्कार के 100 साल बाद भी आज दुनिया में सिर्फ 15% लोगों के पास ही फ्लश टायलेट है। आपको यह जानकर हैरानी होगी कि भारत के ग्रामीण इलाकों में सिर्फ 3% लोगों के पास फ्लश टायलेट हैं और शहरों में भी यह आँकड़ा 25% तक ही सिमट जाता है।
भारत सरकार ने 2013 से हाथ से मैला उठाने की प्रथा को प्रतिबंधित कर दिया है। इसी कारण भारतीय रेलवे में भी मल से सम्बंधित सभी काम अब मशीन के द्वारा ही कराये जाने की प्रणाली को शुरू करने के लिए सरकार ने ट्रेन में बायो टॉयलेट्स या जैविक शैचालयों को लगाने के निश्चय किया है।
संसद में रेलवे बजट 2016-17 पेश करने के दौरान भूतपूर्व रेल मंत्री सुरेश प्रभु ने डिब्रूगढ़ राजधानी ट्रेन का भी उल्लेख किया था। यह दुनिया की पहली बायो वैक्यूम टॉयलेट युक्त ट्रेन है जिसे भारतीय रेलवे ने पिछले साल पेश किया था।

भारतीय रेलवे ने कहा है कि उसका लक्ष्य, (स्वच्छ रेल-स्वच्छ भारत’ कार्यक्रम के अंतर्गत 2019 तक सभी 55,000 डिब्बों में 1,40,000) बायो टॉयलेट्स लगाने का है। 31 अक्टूबर 2016 तक भारतीय रेलवे ने यात्री कोच में 49,000 से अधिक जैव-शौचालय लगाए गए हैं।

बायो टॉयलेट 

बायो टॉयलेट का अविष्कार रक्षा अनुसन्धान और विकास संगठन (DRDO) तथा भारतीय रेलवे द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है। बायो टॉयलेट्स में शौचालय के नीचे बायो डाइजेस्टर कंटेनर में एनेरोबिक बैक्टीरिया होते हैं जो मानव मल को पानी और गैसों में बदल देते हैं। इस प्रक्रिया के तहत मल सड़ने के बाद केवल मीथेन गैस और पानी ही शेष बचते हैं, जिसके बाद पानी को पुनःचक्रित (री-साइकिल) कर शौचालयों में इस्तेमाल किया जा सकता है। इन गैसों को वातावरण में छोड़ दिया जाता है जबकि दूषित जल को क्लोरिनेशन के बाद पटरियों पर छोड़ दिया जाता है।

कैसे बायो टॉयलेट करते हैं काम?

बायो टॉयलेट का अविष्कार रेलवे और डिफेंस रिसर्च एंड डेवलपमेंट ऑर्गनाइजेशन (DRDO) द्वारा संयुक्त रूप से किया गया है। इनमें शौचालय के नीचे बायो डाइजेस्टर कंटेनर में एनेरोबिक बैक्टीरिया होते हैं जो मानव मल को पानी और गैसों में तब्दील कर देता है।इन गैसों को वातावरण में छोड़ दिया जाता है जबकि दूषित जल को क्लोरिनेशन के बाद पटरियों पर छोड़ दिया जाता है।

अब तक जो पारंपरिक शौचालय होते थे वो सीधे मानव मल को पटरियों पर छोड़ देते हैं। यह ने केवल बेहद घटिया लगता था बल्कि इससे पर्यावरण में गंदगी फैलने के साथ ही रेल पटरियों की धातु को नुकसान पहुंचता था। नई तकनीकी यह भी सुनिश्चित करती है कि यह शौचालय बदबू और गंदगी रहित होने के साथ ही इनमें कॉकरोच और मच्छर नहीं आते।

वैक्यूम तकनीकी से युक्त बायो टॉयलेट इसलिए भी ज्यादा फायदेमंद हैं क्योंकि यह पानी की भी बचत करते हैं। जहां ट्रेनों में पाया जाने वाला एक सामान्य बायो टॉयलेट एक बार फ्लश करने पर 10-15 लीटर पानी का इस्तेमाल करता है। वहीं दूसरी तरफ यह वैक्यूम आधारित बॉयो टॉयलेट एक फ्लश में करीब आधा लीटर पानी ही इस्तेमाल करते हैं।

लेकिन बायो टॉयलेट के साथ सबसे बड़ी चिंता इनका काफी ज्यादा रखरखाव होता है। इसके अंतर्गत भौतिक निरीक्षण, ब्लॉक होने पर टॉयलेट शूट की सफाई और क्लोरीनेटर में क्लोरीन गोलियों की चार्जिंग होती है।

इतना ही नहीं यह सही से काम करें इसके लिए यात्रियों को भी काफी जिम्मेदारी से काम करना होगा। यात्रियों को ध्यान रखना होगा कि वे इन शौचालयों में प्लास्टिक बोतल, चाय का कप, कपड़े, सैनेटरी नैपकिन, नैपी, प्लास्टिक थैलियां, गुटखा पाउच समेत अन्य वस्तुएं न डालें।इन चीजों को शौचालय नहीं बल्कि कूड़ेदान में डालने की जरूरत होती है।

बायो टॉयलेट्स के फायदे 

1. पारंपरिक शौचालयों द्वारा मानव मल को सीधे रेल की पटरियों पर छोड़ दिया जाता था, जिससे पर्यावरण में गंदगी फैलने के साथ ही रेल पटरियों की धातु को नुकसान पहुंचता था।
2. फ्लश टॉयलेट्स को एक बार इस्तेमाल करने पर कम से कम 10 से 15 लीटर पानी खर्च होता था जबकि वैक्यूम आधारित बॉयो टॉयलेट एक फ्लश में करीब आधा लीटर पानी ही इस्तेमाल होता है।
3. भारत के स्टेशन अब साफ़ सुथरे और बदबू रहित हो जायेंगे जो कि कई बीमारियों को रोकने की दिशा में अच्छा कदम है।
4. स्टेशन पर मच्छर, कॉकरोच और चूहों की संख्या में कमी आएगी और चूहे स्टेशन को अन्दर से खोलना नही कर पाएंगे।
5. बायो टॉयलेट्स के इस्तेमाल से मानव मल को हाथ से उठाने वाले लोगों को इस गंदे काम से मुक्ति मिल जाएगी।
यहाँ पर यह बताना जरूरी है कि दुनिया के लगभग 50% लोगों के पास पिट लैट्रिन (गड्ढे वाली लेट्रिन) है जहाँ मल नीचे गड्ढे में इकट्ठा होता है। आँकडों के अनुसार इनमें से अधिकतर पिट लैट्रिन से मल रिस-रिस कर जमीन में जाता है जिससे पीने वाला पानी प्रदूषित हो रहा है। फ्लश लैट्रिन की एक समस्या यह भी है कि इसकी मल सामग्री का 95% से अधिक भाग आज भी बगैर किसी ट्रीटमेंट के नदियों के माध्यम से समुद्र में पहुँच जाता है।
उम्मीद है कि ऊपर दिए गए लेख को पढ़ने के बाद यह कहा जा सकता है कि बायो टॉयलेट्स का बढ़ता प्रयोग न सिर्फ पर्यावरण के अनुकूल है बल्कि यह आगे आने वाले समय की जरुरत भी है।

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